Sunday, 29 March 2015

मौसम ए ग़ुफ़्तगू

तुम मुझसे ख़फ़ा हो क्यों?
तुम्हारा मौसम क्यों रुखा सा है अब?
गुलाबों सी गीली हँसी रही है हमेशा तुम्हारी
सिर्फ किताबों को न मेहकाओ अब। 

ख़फ़ा तो एक पल की रिमझिम बरसात थी 
जो खुशियाँ ज़माने में फ़ैला गयी 
मेरे मौसम से मैं नहीं हूँ सिर्फ फ़ैज़ी अब 
मेरी क़िताबें ही नहीं, मेरी क़लम ही नहीं 
मेरा सारा वजूद मेहेकता है 
मेहसूस करो मेरे दिल को अपने दिल में 
खुशबू ही खुशबू बस मिलेगी।


साकेत 

कसे सांगू माझे मीपण तुला, सामान्य गुंत्यात्ला… तरीही वेगळा

तो उगाच उनाड फिरत होता 
वाऱ्यावर तो दरवळत होता
प्रेमभंगाची नवी पहाट 
ओझे पंखांवर पेलत होता 
माझ्या हाकेला शब्द मिळूनही 
कंठातून स्वर फुटत नव्हता 
सुखात केलेली ती वचने
दु:खात त्याचे पूर्णत्व शोधीत होता… 

साकेत